Wednesday, April 8, 2009
Akhtar Shirani
तर्क-ए-वफ़ा भी जुर्म-ए-मुहब्बत सही "अख्तर"!
िमलने लगे वफ़ा की सज़ाएं तो क्या करें!!
Mohammed Dawood Khan was born on 5th May, 1905 in Tonk. His ustad was 'Tajwar' Najibabadi.He is referred to as 'Shahzada-e-Ruman' (Prince of Romance) and Shaaer-e-Husn-o-Javaani (Poet of youth and beauty).
his most popular kalaam is "ai ishq mujhe barbaad na kar....". this is not just poem but the mirorr of shirani's life as well. this is the magic of shirani that in this kalaam agony comes in the form of shyahi with very much innocency. see how he made the magic.......
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
ऐ इश्क न छेड आ आ के हमें
हम भूले हुओं को याद न कर
पहले हि बहुत नाशाद हैं हम
तु और हमें नाशाद न कर
किस्मत का सितम ही कम नहीं कुछ
ये ताज़ा सितम इजाद न कर
युं ज़ुल्म न कर बेदाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
जिस दिन से मिले हैं दोनों का
सब चैन गया आराम गया
चेहरों से बहार-ए-सुबह गई
आंखों से फ़रोग-ए-शाम गया
हाथों से खुशीं का जाम छुटा
होन्थोन से हन्सि का नाम गया
गमगींन न बना नाशाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
रातों को उठ उठ रोते हैं
रो रो कर दुआयें करते हैं
आंखो में तसव्वुर दिल में खलिश
सर धुनते हैं आहें भरते हैं
ऐ इश्क ये कैसा रोग लगा
जीते हैं न ज़ालिम मरते हैं
ये ज़ुल्म तो ऐ जल्लाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
ये रोग लगा है जब से हमें
रन्जिदा हुं मैं बिमार है वो
हर वक्त तपिश हर वक्त खलिश
बे-ख्वाब हुन मैं बेदार ह वो
जीने से इधर बेज़ार हुं मैं
मरने पे उधर तय्यार है वो
और ज़ब्त कहे फ़रियाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
बेदर्द ज़रा इन्साफ़ तो कर
इस उम्र में और मग्मूम है वो
फुलों की तरह नाज़ुक है अभी
तारों की तरह मासुम है वो
ये हुस्न सितम ये रन्ज गज़ब
मजबुर हुं मैं मज़लुम है वो
मज़लुम पे युं बेदाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
ऐ इश्क खुदारा देख कहीं
वो शोख हसीन बदनाम न हो
वो माह-ए-लका बदनाम न हो
वो ज़ोहरा-जबिन बदनाम न हो
नामुस का उस को पास रहे
वो पर्दा-नशीं बदनाम न हो
उस पर्दा-नशीं को याद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
उम्मीद की झुठी जन्नत के
रह रह के न दिखला ख्वाब हमें
आइन्दा के फ़र्ज़ी इशरत के
वादे से न कर बेताब हमें
कह्ता है ज़माना जिस को खुशी
आती है नज़र कामयाब हमें
छोड ऐसी खुशी को याद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
दो दिन हिइ में अहद-ए-तिफ़ालि के
मासुम ज़माने भुल गये
आंखो से वो खुशियां मीट सी गईं
लब के वो तराने भुल गये
उन पाक बहिश्ति ख्ह्वाबों के
दिल्चस्प फ़साने भूल गये
उन ख्वाबों से युं आज़ाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
आंखो को ये क्या आज़ार हुआ
हर जज़्ब-ए-निहान पर रो देना
आहन्ग-ए-तरब पे झुक जाना
आवाज़-ए-फ़ुगान पर रो देना
बर्बत कि सदा पर रो देना
मुतरिब के बयान पर रो देना
एहसास को गम बुनियाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
जी चाहता है इक दुसरे को
यूं आठ पहर हम देखा करें
आंखो में बसायें ख्वाबों को
और दिल को खयाल आबाद करें
खिल्वत में भी जो जल्वत का सामान
वहदत को दुइ से शाद करें
ये आरज़ूएं ईजाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
वो राज़ है ये गम आह जिसे
पा जाये कोइ तो खैर नहीन
आंखो से जब आंसू बहते हैं
आ जाये कोइ तो खैर नहीं
ज़ालिम है ये दुनिया दिल को
यहां भा जाये कोइ खैर नहीं
है ज़ुल्म मगर फ़रियाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
दुनिया का तमशा देख लिया
गमगिन सी है बेताब सी है
उम्मिद यहां इक वहम सी है
तस्किन यहां इक ख्वाब सी है
दुनिया में खुशी का नाम नहीं
दुनिया में खुशी नयाब सी है
दुनिया में खुशी को याद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर
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