Monday, April 20, 2009

मौज-ए-गुल, मौज-ए-सबा.... "जां िनसार अख्तर"

मौज_ए_गुल, मौज_ए_सबा, मौज_ए_सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है िक नज़र लगती है

हमने हर गाम सज्दों में जलाये है िचराग
अब तेरी राहगुज़र राहगुज़र लगती है

लम्हे लम्हे बसी है तेरी यादों की महक
आज की रात तो खुशबु का सफ़र लगती है

जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है िक अब आग िकधर लगती है

सारी दुिनया में गरीबों का लहु बहता है
हर ज़मीं मुझको मेरे खुन से तर लगती है

"जां िनसार अख्तर"

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