Saturday, August 15, 2009

Sunday, July 19, 2009

एहसास....जाँँ िनसार अख़्तर

मैं कोई शे'र न भूले से कहूँगा तुझ पर
फ़ायदा क्या जो मुकम्मल तेरी तहसीन न हो
कैसे अल्फ़ाज़ के साँचे में ढलेगा ये जमाल
सोचता हूँ के तेरे हुस्न की तोहीन न हो

हर मुसव्िवर ने तेरा नक़्श बनाया लेिकन
कोई भी नक़्श तेरा अक्से-बदन बन न सका
लब-ओ-रुख़्सार में क्या क्या न हसीं रंग भरे
पर बनाए हुए फूलों से चमन बन न सका

हर सनम साज़ ने मर-मर से तराशा तुझको
पर ये िपघली हुई रफ़्तार कहाँ से लाता
तेरे पैरों में तो पाज़ेब पहना दी लेकिन
तेरी पाज़ेब की झनकार कहाँ से लाता

शाइरों ने तुझे तमसील में लाना चाहा
एक भी शे'र न मोज़ूँ तेरी तस्वीर बना
तेरी जैसी कोई शै हो तो कोई बात बने
ज़ुल्फ़ का ज़िक्र भी अल्फ़ाज़ की ज़ंजीर बना

तुझको को कोई परे-परवाज़ नहीं छू सकता
िकसी तख़्यील में ये जान कहाँ से आए
एक हलकी सी झलक तेरी मुक़य्यद करले
कोई भी फ़न हो ये इमकान कहाँ से आए

तेर शायाँ कोईपेरायाए-इज़हार नहीं
िसर्फ़ वजदान में इक रंग सा भर सकती है
मैंने सोचा है तो महसूस िकया है इतना
तू िनगाहों से फ़क़त िदल में उतर सकती है

मैं और मेरी तन्हाई...अली सरदार जाफ़री

आवारा हैं गिलयों में मैं और मेरी तनहाई
जाएँ तो कहाँ जाएँ हर मोड़ पे रुसवाई


ये फूल से चहरे हैं हँसते हुए गुलदस्ते
कोई भी नहीं अपना बेगाने हैं सब रस्ते
राहें हैं तमाशाई रही भी तमाशाई


मैं और मेरी तन्हाई


अरमान सुलगते हैं सीने में िचता जैसे
काितल नज़र आती है दुिनया की हवा जैसे
रोटी है मेरे िदल पर बजती हुई शहनाई


मैं और मेरी तन्हाई


आकाश के माथे पर तारों का चरागाँ है
पहलू में मगर मेरे जख्मों का गुलिस्तां
है आंखों से लहू टपका दामन में बहार आई


मैं और मेरी तन्हाई


हर रंग में ये दुिनया सौ रंग िदखाती है
रोकर कभी हंसती है हंस कर कभी गाती है
ये प्यार की बाहें हैं या मौत की अंगडाई


मैं और मेरी तन्हाई

Monday, April 20, 2009

मौज-ए-गुल, मौज-ए-सबा.... "जां िनसार अख्तर"

मौज_ए_गुल, मौज_ए_सबा, मौज_ए_सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है िक नज़र लगती है

हमने हर गाम सज्दों में जलाये है िचराग
अब तेरी राहगुज़र राहगुज़र लगती है

लम्हे लम्हे बसी है तेरी यादों की महक
आज की रात तो खुशबु का सफ़र लगती है

जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है िक अब आग िकधर लगती है

सारी दुिनया में गरीबों का लहु बहता है
हर ज़मीं मुझको मेरे खुन से तर लगती है

"जां िनसार अख्तर"

Friday, April 10, 2009

Jan Nisar Akhtar



"रन्ज-ओ-गम मांगे है, अन्दोह-ओ-बला मांगे है
दील वो मुजरिम है जो खुद अपनी सज़ा मांगे है
तु भी इक दौलत-ए-नायाब है पर क्या कहीऎ
ज़ीदगी और भी कुछ तेरे सीवा मांगे है"

Jan Nisar Akhtar was born on 14 feb. 1914 in Gwalior, Madhya Pradesh, India. was a famous Indian poet of Urdu ghazals and nazms and also a lyricist for Bollywood. He taught in a college in Bhopal but moved to Bombay (now Mumbai) where he wrote lyrics for Urdu/Hindi movies besides ghazals and nazms for general publication. His association with Madan Mohan, the music director resulted in many memorable movie songs. He was married to Safiya sister of another renowned poet, Majaz.

"तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा

गुज़र ही आये किसी तरह तेरे दिवाने
कदम कदम पे कोई सख्त मरहला तो रहा

चलो ना इश्क ही जीता न अक्ल हार सकी
तमाम वक्त मज़े का मुकाबला तो रहा

मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तु मुझ में
बहुत करीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा"

Jan Nisar Akhtar was father of lyricist and script-writer Javed Akhtar and psychiatrist and poet Salman Akhtar and grandfather of Farhan Akhtar and Zoya Akhtar and also of Kabir Akhtar and Nishat Akhtar. Father-in-law of Shabana Azmi and Monisha Nayar and ex-father-in-law of Honey Irani and Raj Verma.

"ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड आया था
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था

मुआफ़ कर न सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था

शगुफ़्ता फुल सिमट कर कली बने जैसे
कुछ इस तरह से तुने बदन चुराया था

गुज़र गया है कोइ लम्हा-ए-शरर की तरह
अभी तो मैन उसे पहचान भी ना पाया था

पता नही कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री
मैं चन्द ख्वाब ज़माने में छोड आया था "

He died in Mumbai, India on 19 August, 1976.

Thursday, April 9, 2009

Ali Sardar Jafri



मैं जहां तुम को बुलाता हुं वहां तक आओ
मेरी नज़रों से गुज़र कर िदल-ओ-जान तक आओ !
िफर ये देखो िक ज़माने की हवा है कैसी
साथ मेरे मेरे िफ़रदौस-ए-जवान तक आओ !!

Ali Sardar Jafri was born in Balrampur 1913, Uttar Pradesh. His early influences were Josh Malihabadi, lyricist Jigar Muradabadi and Firaq Gorakhpuri. In 1933, he joined Aligarh Muslim University (AMU) and soon got exposed to Communist ideology, subsequently he was expelled from the University in 1936, for ‘political reasons’. Eventually he graduated from Delhi University in 1938, though his post graduation studies at Lucknow University ended prematurely following his arrest during 1940-41 for writing anti-War poems, and taking part in Congress led political activities as Secretary of the university's Students' Union. he was the self-proclaimed spokesman for the poor, and wrote zealously to promote peace and friendship between India and Pakistan, during his 69-year-old career. In September 1965, even as the guns blazed from either side of the border, Sardar Jafri broadcast his poem Sarhad(Border) on All India Radio. It was a peace 'offensive' which stressed that "after all the killings you will finally have to talk peace sitting across a table"

"अभी और तेज़ कर ले सर-ए-खन्जर-ए-अदा को
मेरे खुन की है ज़रुरत तेरी शोखी-ए-िहना को

तुझे िकस नज़र से देखे ये िनगाह-ए-दर्द आगीन
जो दुआएं दे रही है तेरी चश्म-ए-बेवफ़ा को

कहीं रह गई शायद तेरे िदल की धडकनों में
कभी सुन सके तो सुन ले मेरी खुनशीदा नवा को

कोइ बोलता नहीं है मैं पुकारता रहा हुं
कभी बुतकदे में बुत को कभी काबे में खुदा को"

Ali Sardar Jafri was involved in several social, political and literary movements. On January 20, 1949, he was arrested at Bhiwandi, for holding of a (now banned) Progressive Urdu writers' conference, despite warnings from Morarji Desai, the Chief Minister of Bombay State; three months later, he was rearrested.

"काम अब कोई न आयेगा बस इक िदल के िसवा
रास्ते बन्द हैं सब कुचा-ए-काितल के िसवा

बाइस-ए-रश्क है तन्हारवी-ए-राहरौ-ए-शौक
हमसफ़र कोई नहीं दूरी-ए-मिज़ल के िसवा

हम ने दुिनया की हर इक शै से उठाया िदल को
लेिकन इक शोख के हन्गामा-ए-महिफ़ल के िसवा

तेग मुनि्सफ़ हो जहां दार-ओ-रसन हों शािहद
बेगुनाह कौन है उस शहर में काितल के िसवा

जाने िकस रंग से आइ है गुलशन में बहार
कोइ नग्मा ही नहीं शोर-ए-िसलािसल के िसवा"

Jafri's literary career began at the young age of 17 as a short story writer with the pen name Hazin. He has written nine books of verse, two plays, one memoir-reportage, three collections of critical essays and one volume of short stories. And the two countries of his affection have honoured him repeatedly. He was awarded the Iqbal Gold Medal by the Pakistan government in 1978 and in India, he was awarded the prestigious Jnanpith Puraskar in 1998. His memorable work, 'Ek Khwab Aur', won the Sahitya Akademi award.

He died on August 1, 2000 in Mumbai, and on his first death anniversary in 2001, a book "Ali Sardar Jafri: The youthful boatman” of joy was released.

Wednesday, April 8, 2009

Akhtar Shirani


तर्क-ए-वफ़ा भी जुर्म-ए-मुहब्बत सही "अख्तर"!
िमलने लगे वफ़ा की सज़ाएं तो क्या करें!!

Mohammed Dawood Khan was born on 5th May, 1905 in Tonk. His ustad was 'Tajwar' Najibabadi.He is referred to as 'Shahzada-e-Ruman' (Prince of Romance) and Shaaer-e-Husn-o-Javaani (Poet of youth and beauty).
his most popular kalaam is "ai ishq mujhe barbaad na kar....". this is not just poem but the mirorr of shirani's life as well. this is the magic of shirani that in this kalaam agony comes in the form of shyahi with very much innocency. see how he made the magic.......


ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

ऐ इश्क न छेड आ आ के हमें
हम भूले हुओं को याद न कर
पहले हि बहुत नाशाद हैं हम
तु और हमें नाशाद न कर
किस्मत का सितम ही कम नहीं कुछ
ये ताज़ा सितम इजाद न कर
युं ज़ुल्म न कर बेदाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

जिस दिन से मिले हैं दोनों का
सब चैन गया आराम गया
चेहरों से बहार-ए-सुबह गई
आंखों से फ़रोग-ए-शाम गया
हाथों से खुशीं का जाम छुटा
होन्थोन से हन्सि का नाम गया
गमगींन न बना नाशाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

रातों को उठ उठ रोते हैं
रो रो कर दुआयें करते हैं
आंखो में तसव्वुर दिल में खलिश
सर धुनते हैं आहें भरते हैं
ऐ इश्क ये कैसा रोग लगा
जीते हैं न ज़ालिम मरते हैं
ये ज़ुल्म तो ऐ जल्लाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

ये रोग लगा है जब से हमें
रन्जिदा हुं मैं बिमार है वो
हर वक्त तपिश हर वक्त खलिश
बे-ख्वाब हुन मैं बेदार ह वो
जीने से इधर बेज़ार हुं मैं
मरने पे उधर तय्यार है वो
और ज़ब्त कहे फ़रियाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

बेदर्द ज़रा इन्साफ़ तो कर
इस उम्र में और मग्मूम है वो
फुलों की तरह नाज़ुक है अभी
तारों की तरह मासुम है वो
ये हुस्न सितम ये रन्ज गज़ब
मजबुर हुं मैं मज़लुम है वो
मज़लुम पे युं बेदाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

ऐ इश्क खुदारा देख कहीं
वो शोख हसीन बदनाम न हो
वो माह-ए-लका बदनाम न हो
वो ज़ोहरा-जबिन बदनाम न हो
नामुस का उस को पास रहे
वो पर्दा-नशीं बदनाम न हो
उस पर्दा-नशीं को याद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

उम्मीद की झुठी जन्नत के
रह रह के न दिखला ख्वाब हमें
आइन्दा के फ़र्ज़ी इशरत के
वादे से न कर बेताब हमें
कह्ता है ज़माना जिस को खुशी
आती है नज़र कामयाब हमें
छोड ऐसी खुशी को याद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

दो दिन हिइ में अहद-ए-तिफ़ालि के
मासुम ज़माने भुल गये
आंखो से वो खुशियां मीट सी गईं
लब के वो तराने भुल गये
उन पाक बहिश्ति ख्ह्वाबों के
दिल्चस्प फ़साने भूल गये
उन ख्वाबों से युं आज़ाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

आंखो को ये क्या आज़ार हुआ
हर जज़्ब-ए-निहान पर रो देना
आहन्ग-ए-तरब पे झुक जाना
आवाज़-ए-फ़ुगान पर रो देना
बर्बत कि सदा पर रो देना
मुतरिब के बयान पर रो देना
एहसास को गम बुनियाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

जी चाहता है इक दुसरे को
यूं आठ पहर हम देखा करें
आंखो में बसायें ख्वाबों को
और दिल को खयाल आबाद करें
खिल्वत में भी जो जल्वत का सामान
वहदत को दुइ से शाद करें
ये आरज़ूएं ईजाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

वो राज़ है ये गम आह जिसे
पा जाये कोइ तो खैर नहीन
आंखो से जब आंसू बहते हैं
आ जाये कोइ तो खैर नहीं
ज़ालिम है ये दुनिया दिल को
यहां भा जाये कोइ खैर नहीं
है ज़ुल्म मगर फ़रियाद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर

दुनिया का तमशा देख लिया
गमगिन सी है बेताब सी है
उम्मिद यहां इक वहम सी है
तस्किन यहां इक ख्वाब सी है
दुनिया में खुशी का नाम नहीं
दुनिया में खुशी नयाब सी है
दुनिया में खुशी को याद न कर
ऐ इश्क हमें बर्बाद न कर